कहानी है यह वित्तेक्षक (बर्सर) विवाद को लेकर खासे चर्चा में रहे पटना के एक चर्चित महाविद्यालय (University) की. विवाद प्रभारी प्राचार्य और बर्सर में हुआ, जो संभवतः अब तक अनसुलझा है. विवाद का मुख्य मुद्दा बर्चस्व स्थापित करना नहीं, कमाई में हिस्सेदारी का है. सामान्य लोगों को नहीं मालूम कि महाविद्यालयों में कमाई के कौन- कौन और कितने स्रोत हैं. पठन-पाठन से इतर ऐसे अनेक स्रोत हैं. आउटसोर्सिंग (Outsourcing) सबसे बड़ा स्रोत है. चर्चाओं पर भरोसा करें , तो पद की हैसियत के हिसाब से उस कमाई के कई हिस्सेदार होते हैं. बताया जाता है कि प्राचार्य के बाद बड़ा हिस्सा वित्तेक्षक का होता है. इसलिए कि हर तरह के चेक पर प्राचार्य (Principal) और वित्तेक्षक के संयुक्त कुलपति भी चपेट में इस कालेज में पहले वाले प्रधानाचार्य से वित्तेक्षक (Financial Auditor) का बेहतर तालमेल था’. कहीं कोई किचकिच नहीं. उस प्रधानाचार्य को पटना के ही इससे बड़े प्रतिष्ठित महाविद्यालय (Prestigious College) में अवसर मिल गया. इस महाविद्यालय में प्रभारी प्राचार्य के रूप में नयी पदस्थापना हुई. हिस्सेदारी को लेकर सींगें फंसीं, तालमेल टूटा और वित्तेक्षक को बगैर मान्य प्रक्रिया अपनाये मनमाने ढ़ंग से इस दायित्व से मुक्त कर दिया गया. विभागाध्यक्ष के मूल पद को छोड़ पूर्व के प्रधानाचार्य द्वारा दी गयी तमाम जिम्मेदारियों – सुविधाओं से भी विरत कर दिया गया. यहां तक कि अधिनायकवादी रवैया अपनाते हुए खुला विश्वविद्यालय के अध्ययन केन्द्र को भी बंद करवा दिया गया. वित्तेक्षक उस अध्ययन केन्द्र के प्रभारी थे. वित्तेक्षक ने प्रभारी प्राचार्य के खिलाफ कई तरह के आरोप उछाले I
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