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साठ का दशक था। आज़ादी आये अभी कुछ साल ही बीते थे

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साठ का दशक था। आज़ादी आये अभी कुछ साल ही बीते थे, परंतु उसकी सुगंध हमारे गाँव शहर के कोने-कोने में चरखा, तकली, खादी वस्त्रों, स्वराजी लोकगीतों तथा कथा-कहानियों के रूप में सर्वत्र फैली हुई थी। मुझे याद है, मेरी अम्मां घर के कामकाज से फुर्सत मिलते ही देशी चर्खा लेकर सूत कातने बैठ जाती थीं।आँगन के बारामदे में धीरे-धीरे घर की अन्य महिलायें भी एकत्रित होकर अपने-अपने चर्खे-तकली, डलिया बनाने के लिये सरकंडे और कशीदाकारी का सामान लेकर बैठ जातीं और गपशप करते हुए अपने काम भी कर लेतीं।

दादी सफ़ेद धुनी हुई रुई से लंबी-लंबी पूनियाँ बनाकर अम्मां को कातने के लिये देती जातीं। बडी भाभी के पास बड़ा अंबर चर्खा था, जिससे वो ढेर सारे सूत कम समय में ही कात लेतीं। तकलियाँ भरने पर धागों को घुटनों पर लपेटकर चोटी का आकार दे अम्मां उन्हें सरकंडे से बनी सुंदर डलिया में इकट्ठा कर लेतीं। बाद में सूत को स्थानीय खादी भंडार में देकर तरह-तरह के सामान, जिनमें सतरंगी दरी, साड़ियाँ और धोती प्रमुख होते, घर में लाये जाते। मुझे याद है, चर्खा कातते समय वे समवेत स्वर में स्वराजी, देशप्रेम से जुड़े गीत गातीं। खादी अम्मां के चर्खे और आँगन में बिछी खाट पर चमकती सतरंगी दरी के रूप में बचपन से ही मेरे ज़ेहन में बैठी हुई थी। आज खादी की यात्रा का ज़िक्र करते हुए मुझे अपना बचपन याद आ गया।....रीता सिंह

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